मनमोहन सिंह के किस्से

मनमोहन सिंह के किस्से
आइये, मैं आपको एक किस्सा सुनाता हूँ। 

बात 1991 की है। तब चंद्रशेखर देश के प्रधानमंत्री हुआ करते थे। चंद्रशेखर की सरकार मात्र 60 सांसदों की सरकार थी जिसे बाहर से काँग्रेस पार्टी का समर्थन प्राप्त था। चंद्रशेखर ने 10 नवम्बर 1990 को प्रधानमंत्री पद की शपथ ली थी। 

पर जैसा कि कांग्रेस पार्टी हमेशा से करती आई है, चार महीने बाद ही राजीव गाँधी ने चंद्रशेखर की सरकार से समर्थन वापस ले लिया। चंद्रशेखर के पास पद से त्यागपत्र देने के अलावा और कोई चारा नहीं था। 

6 मार्च 1991 को उन्होंने अपने करीबी साथियों के साथ गुड़गांव के भोंडसी आश्रम में बैठक की जिसमें यह तय किया गया कि चंद्रशेखर राष्ट्रपति भवन जाकर राष्ट्रपति श्री आर वेंकटरमन को अपना त्यागपत्र सौंप देंगे।

चंद्रशेखर राष्ट्रपति भवन के लिए निकलने ही वाले थे कि उन्हें बताया गया कि डॉ मनमोहन सिंह उनसे मिलने के लिये आये हैं। मनमोहन सिंह चंद्रशेखर के चार मास के शासन काल के दौरान उनके सलाहकार के पद पर आसीन थे। 

चंद्रशेखर ने डॉक्टर साब को अंदर बुलवा लिया और आने का कारण पूछा। पर जो कारण मनमोहन सिंह ने बताया उससे चंद्रशेखर भी हैरान रह गये।

दरअसल, कुछ दिनों पहले प्रधानमंत्री के साथ चर्चा के दौरान यह बात निकल कर आई थी कि UGC यानि कि University Grants Commission (विश्वविद्यालय अनुदान आयोग) के चेयरमैन का पद रिक्त है। चंद्रशेखर ने डॉक्टर सिंह को कोई उपयुक्त नाम सुझाने के लिये कहा था।

पर वो तब की बात थी।

अब सिचुएशन अलग थी। प्रधानमंत्री त्यागपत्र देने वाले थे और मनमोहन सिंह का 'प्रधानमंत्री के सलाहकार' का पद जाने वाला था। तो मनमोहन सिंह को लगा कि प्रधानमंत्री त्यागपत्र दे उससे पहले ही उनसे UGC के चेयरमैन के पद पर स्वयं की नियुक्ति करवा ली जाये। और वैसे भी नाम देने के लिये चंद्रशेखर ने उन्हीं से तो कहा था। और हाँ, चूँकि यह पद एक शुद्ध राजनैतिक पद नहीं है तो भाजपा भी ज़्यादा हो-हल्ला नहीं मचायेगी। और गाँधी परिवार की सेवा तो वे 1971 से करते आ रहे हैं तो राजीव गाँधी तो खुश ही होंगे कि सरकार भले ही अपनी न बन पाये पर UGC का चेयरमैन तो अपना आदमी बन गया।

तो जनाब! 6 मार्च की सुबह जैसे ही मनमोहन सिंह को यह पता चला कि कुछ ही घंटों में चंद्रशेखर इस्तीफा देने वाले हैं, वह फटाफट भोंडसी आश्रम पहुँच गए और प्रधानमंत्री से निवेदन किया कि वह त्यागपत्र देने के पहले उन्हें UGC का चेयरमैन बनाने का आदेश जारी कर दें।

चंद्रशेखर हतप्रभ थे कि ऐसे समय में जब उनकी सरकार ऑलरेडी अल्पमत में आ चुकी है और इतने महत्वपूर्ण पद पर नियुक्ति करने का नैतिक अधिकार खो चुकी है, मनमोहन सिंह उनके पास यह प्रस्ताव लेकर क्यों आये हैं। 

पर चंद्रशेखर को भी नैतिकता की अधिक चिंता कहाँ रहती थी ! चिंता रहती तो वे कांग्रेस के 211 सांसदों का बाहरी समर्थन लेकर जनता दल (समाजवादी) के मात्र 60 सांसदों की सरकार नहीं बनाते। उन्होंने UGC के चेयरमैन के पद पर मनमोहन सिंह की नियुक्ति के आदेश पर हस्ताक्षर कर दिए।

15 मार्च 1991 को, अर्थात चंद्रशेखर के प्रधानमंत्री पद से त्यागपत्र देने के पूरे 9 दिन बाद, मनमोहन सिंह ने UGC के चेयरमैन के रूप में कार्यभार संभाला। उन्होंने यह कार्यभार तब संभाला जब देश में एक कार्यवाहक सरकार थी जिसे शीर्षस्थ पदों पर नियुक्ति का कोई नैतिक अधिकार नहीं था।

यह कहानी मैंने आपको इसलिये सुनाई ताकि आपको यह अंदाजा हो कि डॉ मनमोहन सिंह कितने पदलोलुप इंसान हैं। यह बिना किसी पद के रह ही नहीं सकते। जब से मैंने होश संभाला है यह किसी न किसी पद पर बने ज़रूर रहते हैं चाहे सरकार किसी की हो।

अगर हम मोरारजी भाई और चरण सिंह के दो-ढाई वर्षों को छोड़ दें तो 1971 से लेकर 1996 तक वो लगातार केंद्र सरकार या किसी केंद्रीय संस्थान में किसी न किसी शीर्ष पद पर आसीन ज़रूर रहे। 

और फिर 2004 से लेकर 2014 तक जब वह सोनिया गाँधी की चरण पादुका प्रधानमंत्री की कुर्सी पर रख के उनके behalf पर प्रॉक्सी सरकार चला रहे थे उसे कौन नहीं जानता?

और तो और, 2013 में जब राहुल गाँधी ने उनके कैबिनेट द्वारा पास किया गया एक ऑर्डिनेंस भरी प्रेस कॉन्फ्रेंस में फाड़ के फेंक दिया था तब भी उनके मन में प्रधानमंत्री के पद से त्यागपत्र देने का खयाल नहीं आया।

क्योंकि मनमोहन सिंह को पद चाहिए। अगर आप उन्हें पद देंगे तो यकीन मानिये वो हर वो काम करेंगे जिसे करने के लिए आप उनसे कहेंगे फिर चाहे इससे उनकी प्रतिष्ठा पर दाग ही क्यों न लगता हो।

अब छः साल से सरकार में कोई पद नहीं है तो कांग्रेस पार्टी में #ग़ुलाम का पद ही सही।

पूरी निष्ठा के साथ गुलामी बजा रहे हैं।

सोनिया गाँधी जो कहने के लिये कहती हैं, वो कहते हैं।

पर जब उनसे ये पूछा जाता है कि बताइये कि आपने किस नियम के तहत प्रधानमंत्री राहत कोष के पैसे राजीव गाँधी फाउंडेशन को दान में दे दिये तो वो मौन हो जाते हैं।

क्योंकि ग़ुलाम अपने मालिक के ख़िलाफ़ अपनी ज़ुबान कभी नहीं खोलता।

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